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भारतीय कृषि

जानिए गर्मियों में पशुओं के चारे की समस्या खत्म करने वाली नेपियर घास के बारे में

जानिए गर्मियों में पशुओं के चारे की समस्या खत्म करने वाली नेपियर घास के बारे में

भारत एक कृषि प्रधान देश है। क्योंकि, यहां की अधिकांश आबादी खेती किसानी पर निर्भर है। कृषि को अर्थव्यवस्था का मुख्य स्तंभ माना जाता है। भारत में खेती के साथ-साथ पशुपालन भी बड़े पैमाने पर किया जाता है। विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में जहां खेती के पश्चात पशुपालन दूसरा सबसे बड़ा व्यवसाय है। किसान गाय-भैंस से लेकर भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में तरह-तरह के पशु पालते हैं। 

दरअसल, महंगाई के साथ-साथ पशुओं का चारा भी फिलहाल काफी महंगा हो गया है। ऐसा माना जाता है, कि चारे के तौर पर पशुओं के लिए हरी घास सबसे अच्छा विकल्प होती है। यदि पशुओं को खुराक में हरी घास खिलाई जाए, तो उनका दुग्ध उत्पादन भी बढ़ जाता है। लेकिन, पशुपालकों के सामने समस्या यही है, कि इतनी सारी मात्रा में वे हरी घास का प्रबंध कहां से करें? अब गर्मियों की दस्तक शुरू होने वाली है। इस मौसम में पशुपालकों के सामने पशु चारा एक बड़ी समस्या बनी रहती है। अब ऐसे में पशुपालकों की ये चुनौती हाथी घास आसानी से दूर कर सकती है।

नेपियर घास पशुपालकों की समस्या का समाधान है 

किसानों और पशुपालकों की इसी समस्या का हल ये हाथी घास जिसको नेपियर घास (Nepiyar Grass) भी कहा जाता है। यह एक तरह का पशु चारा है। यह तीव्रता से उगने वाली घास है और इसकी ऊंचाई काफी अधिक होती है। ऊंचाई में ये इंसानों से भी बड़ी होती है। इस वजह से इसको हाथी घास कहा जाता है। पशुओं के लिए यह एक बेहद पौष्टिक चारा है। कृषि विशेषज्ञों द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक, सबसे पहली नेपियर हाईब्रिड घास अफ्रीका में तैयार की गई थी। अब इसके बाद ये बाकी देशों में फैली और आज विभिन्न देशों में इसे उगाया जा रहा है।

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नेपियर घास को तेजी से अपना रहे लोग

भारत में यह घास 1912 के तकरीबन पहुंची थी, जब तमिलनाडु के कोयम्बटूर में नेपियर हाइब्रिड घास पैदा हुई। दिल्ली में इसे 1962 में पहली बार तैयार किया गया। इसकी पहली हाइब्रिड किस्म को पूसा जियंत नेपियर नाम दिया गया। वर्षभर में इस घास को 6 से 8 बार काटा जा सकता है और हरे चारे को अर्जित किया जा सकता है। वहीं, यदि इसकी उपज कम हो तो इसे पुनः खोदकर लगा दिया जाता है। पशु चारे के तौर पर इस घास को काफी तीव्रता से उपयोग किया जा रहा है।

नेपियर घास गर्म मौसम का सबसे उत्तम चारा है 

हाइब्रिड नेपियर घास को गर्म मौसम की फसल कहा जाता है, क्योंकि यह गर्मी में तेजी से बढ़ती है। विशेषकर उस वक्त जब तापमान 31 डिग्री के करीब होता है। इस फसल के लिए सबसे उपयुक्त तापमान 31 डिग्री है। परंतु, 15 डिग्री से कम तापमान पर इसकी उपज कम हो सकती है। नेपियर फसल के लिए गर्मियों में धूप और थोड़ी बारिश काफी अच्छी मानी जाती है। 

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नेपियर घास की खेती के लिए मृदा व सिंचाई 

नेपियर घास का उत्पादन हर तरह की मृदा में आसानी से किया जा सकता है। हालांकि, दोमट मृदा इसके लिए सबसे उपयुक्त मानी जाती है। खेत की तैयारी के लिए एक क्रॉस जुताई हैरो से और फिर एक क्रॉस जुताई कल्टीवेटर से करनी उचित रहती है। इससे खरपतवार पूर्ण रूप से समाप्त हो जाते हैं। इसे अच्छे से लगाने के लिए समुचित दूरी पर मेड़ बनानी चाहिए। इसको तने की कटिंग और जड़ों द्वारा भी लगाया जा सकता है। हालांकि, वर्तमान में ऑनलाइन भी इसके बीज मिलने लगे हैं। खेत में 20-25 दिन तक हल्की सिंचाई करते रहना चाहिए।

सावधान : बढ़ती गर्मी में इस तरह करें अपने पशुओं की देखभाल

सावधान : बढ़ती गर्मी में इस तरह करें अपने पशुओं की देखभाल

फिलहाल गर्मी के दिन शुरू हो गए हैं। आम जनता के साथ-साथ पशुओं को भी गर्मी प्रभावित करेगी। ऐसे में मवेशियों को भूख कम और प्यास ज्यादा लगती है। पशुपालक अपने मवेशियों को दिन में न्यूनतम तीन बार जल पिलाएं। 

जिससे कि उनके शरीर को गर्म तापमान को सहन करने में सहायता प्राप्त हो सके। इसके अतिरिक्त लू से संरक्षण हेतु पशुओं के जल में थोड़ी मात्रा में नमक और आटा मिला देना चाहिए। 

भारत के विभिन्न राज्यों में गर्मी परवान चढ़ रही है। इसमें महाराष्ट्र राज्य सहित बहुत से प्रदेशों में तापमान 40 डिग्री पर है। साथ ही, गर्म हवाओं की हालत देखने को मिल रही है। साथ ही, उत्तर भारत के अधिकांश प्रदेशों में तापमान 35 डिग्री तक हो गया है। 

इस मध्य मवेशियों को गर्म हवा लगने की आशंका रहती है। लू लगने की वजह से आम तौर पर पशुओं की त्वचा में सिकुड़न और उनकी दूध देने की क्षमता में गिरावट देखने को मिलती है। 

हालात यहां तक हो जाते हैं, कि इसके चलते पशुओं की मृत्यु तक हो जाने की बात सामने आती है। ऐसी भयावय स्थिति से पशुओं का संरक्षण करने के लिए उनकी बेहतर देखभाल करना अत्यंत आवश्यक है।

पशुओं को पानी पिलाते रहें

गर्मी के दिनों में मवेशियों को न्यूनतम 3 बार जल पिलाना काफी आवश्यक होता है। इसकी मुख्य वजह यह है, कि जल पिलाने से पशुओं के तापमान को एक पर्याप्त संतुलन में रखने में सहायता प्राप्त होती है। 

इसके अतिरिक्त मवेशियों को जल में थोड़ी मात्रा में नमक और आटा मिलाकर पिलाने से गर्म हवा लगने की आशंका काफी कम रहती है। 

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यदि आपके पशुओं को अधिक बुखार है और उनकी जीभ तक बाहर निकली दिख रही है। साथ ही, उनको सांस लेने में भी दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है। उनके मुंह के समीप झाग निकलते दिखाई पड़ रहे हैं तब ऐसी हालत में पशु की शक्ति कम हो जाती है। 

विशेषज्ञों के मुताबिक, ऐसे हालात में अस्वस्थ पशुओं को सरसों का तेल पिलाना काफी लाभकारी साबित हो सकता है। सरसों के तेल में वसा की प्रचूर मात्रा पायी जाती है। जिसकी वजह से शारीरिक शक्ति बढ़ती है। विशेषज्ञों के अनुरूप गाय और भैंस के पैदा हुए बच्चों को सरसों का तेल पिलाया जा सकता है।

पशुओं को सरसों का तेल कितनी मात्रा में पिलाया जाना चाहिए

सीतापुर जनपद के पशुपालन वैज्ञानिक डॉ आनंद सिंह के अनुरूप, गर्मी एवं लू से पशुओं का संरक्षण करने के लिए काफी ऊर्जा की जरूरत होती है। ऐसी हालत में सरसों के तेल का सेवन कराना बेहद लाभकारी होता है। 

ऊर्जा मिलने से पशु तात्कालिक रूप से बेहतर महसूस करने लगते हैं। हालांकि, सरसों का तेल पशुओं को प्रतिदिन देना लाभकारी नहीं माना जाता है। 

डॉ आनंद सिंह के अनुसार, पशुओं को सरसों का तेल तभी पिलायें, जब वह बीमार हों अथवा ऊर्जा स्तर निम्न हो। इसके अतिरिक्त पशुओं को एक बार में 100 -200 ML से अधिक तेल नहीं पिलाना चाहिए। 

हालांकि, अगर आपकी भैंस या गायों के पेट में गैस बन गई है, तो उस परिस्थिति में आप अवश्य उन्हें 400 से 500 ML सरसों का तेल पिला सकते हैं। 

साथ ही, पशुओं के रहने का स्थान ऐसी जगह होना चाहिए जहां पर प्रदूषित हवा नहीं पहुँचती हो। पशुओं के निवास स्थान पर हवा के आवागमन के लिए रोशनदान अथवा खुला स्थान होना काफी जरुरी है।

पशुओं की खुराक पर जोर दें

गर्मी के मौसम में लू के चलते पशुओं में दूध देने की क्षमता कम हो जाती है। उनको इस बीच प्रचूर मात्रा में हरा एवं पौष्टिक चारा देना अत्यंत आवश्यक होता है। 

हरा चारा अधिक ऊर्जा प्रदान करता है। हरे चारे में 70-90 फीसद तक जल की मात्रा होती है। यह समयानुसार जल की आपूर्ति सुनिश्चित करती है। इससे पशुओं की दूध देने की क्षमता काफी बढ़ जाती है।

इस वैज्ञानिक विधि से करोगे खेती, तो यह तिलहन फसल बदल सकती है किस्मत

इस वैज्ञानिक विधि से करोगे खेती, तो यह तिलहन फसल बदल सकती है किस्मत

पिछले कुछ समय से टेक्नोलॉजी में काफी सुधार की वजह से कृषि की तरफ रुझान देखने को मिला है और बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों को छोड़कर आने वाले युवा भी, अब धीरे-धीरे नई वैज्ञानिक तकनीकों के माध्यम से भारतीय कृषि को एक बदलाव की तरफ ले जाते हुए दिखाई दे रहे हैं।

जो खेत काफी समय से बिना बुवाई के परती पड़े हुए थे, अब उन्हीं खेतों में अच्छी तकनीक के इस्तेमाल और सही समय पर अच्छा मैनेजमेंट करने की वजह से आज बहुत ही उत्तम श्रेणी की फसल लहलहा रही है। 

इन्हीं तकनीकों से कुछ युवाओं ने पिछले 1 से 2 वर्ष में तिलहन फसलों के क्षेत्र में आये हुए नए विकास के पीछे अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। तिलहन फसलों में मूंगफली को बहुत ही कम समय में अच्छी कमाई वाली फसल माना जाता है।

पिछले कुछ समय से बाजार में आई हुई हाइब्रिड मूंगफली का अच्छा दाम तो मिलता ही है, साथ ही इसे उगाने में होने वाले खर्चे भी काफी कम हो गए हैं। केवल दस बीस हजार रुपये की लागत में तैयार हुई इस हाइब्रिड मूंगफली को बेचकर अस्सी हजार रुपये से एक लाख रुपए तक कमाए जा सकते हैं।

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इस कमाई के पीछे की वैज्ञानिक विधि को चक्रीय खेती या चक्रीय-कृषि के नाम से जाना जाता है, जिसमें अगेती फसलों को उगाया जाता है। 

अगेती फसल मुख्यतया उस फसल को बोला जाता है जो हमारे खेतों में उगाई जाने वाली प्रमुख खाद्यान्न फसल जैसे कि गेहूं और चावल के कुछ समय पहले ही बोई जाती है, और जब तक अगली खाद्यान्न फसल की बुवाई का समय होता है तब तक इसकी कटाई भी पूरी की जा सकती है। 

इस विधि के तहत आप एक हेक्टर में ही करीब 500 क्विंटल मूंगफली का उत्पादन कर सकते हैं और यह केवल 60 से 70 दिन में तैयार की जा सकती है।

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मूंगफली को मंडी में बेचने के अलावा इसके तेल की भी अच्छी कीमत मिलती है और हाल ही में हाइब्रिड बीज आ जाने के बाद तो मूंगफली के दाने बहुत ही बड़े आकार के बनने लगे हैं और उनका आकार बड़ा होने की वजह से उनसे तेल भी अधिक मिलता है। 

चक्रीय खेती के तहत बहुत ही कम समय में एक तिलहन फसल को उगाया जाता है और उसके तुरंत बाद खाद्यान्न की किसी फसल को उगाया जाता है। जैसे कि हम अपने खेतों में समय-समय पर खाद्यान्न की फसलें उगाते हैं, लेकिन एक फसल की कटाई हो जाने के बाद में बीच में बचे हुए समय में खेत को परती ही छोड़ दिया जाता है, लेकिन यदि इसी बचे हुए समय का इस्तेमाल करते हुए हम तिलहन फसलों का उत्पादन करें, जिनमें मूंगफली सबसे प्रमुख फसल मानी जाती है।

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भारत में मानसून मौसम की शुरुआत होने से ठीक पहले मार्च में मूंगफली की खेती शुरू की जाती है। अगेती फसलों का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि इन्हें तैयार होने में बहुत ही कम समय लगता है, साथ ही इनकी अधिक मांग होने की वजह से मूल्य भी अच्छा खासा मिलता है। 

इससे हमारा उत्पादन तो बढ़ेगा ही पर साथ ही हमारे खेत की मिट्टी की उर्वरता में भी काफी सुधार होता है। इसके पीछे का कारण यह है, कि भारत की मिट्टि में आमतौर पर नाइट्रोजन की काफी कमी देखी जाती है और मूंगफली जैसी फसलों की जड़ें नाइट्रोजन यौगिकीकरण या आम भाषा में नाइट्रोजन फिक्सेशन (Nitrogen Fixation), यानी कि नाइट्रोजन केंद्रीकरण का काम करती है और मिट्टी को अन्य खाद्यान्न फसलों के लिए भी उपजाऊ बनाती है। 

इसके लिए आप समय-समय पर कृषि विभाग से सॉइल हेल्थ कार्ड के जरिए अपनी मिट्टी में उपलब्ध उर्वरकों की जांच भी करवा सकते हैं।

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मूंगफली के द्वारा किए गए नाइट्रोजन के केंद्रीकरण की वजह से हमें यूरिया का छिड़काव भी काफी सीमित मात्रा में करना पड़ता है, जिससे कि फर्टिलाइजर में होने वाले खर्चे भी काफी कम हो सकते हैं। 

इसी बचे हुए पैसे का इस्तेमाल हम अपने खेत की यील्ड को बढ़ाने में भी कर सकते हैं। यदि आपके पास इस प्रकार की हाइब्रिड मूंगफली के अच्छे बीज उपलब्ध नहीं है तो उद्यान विभाग और दिल्ली में स्थित पूसा इंस्टीट्यूट के कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा समय-समय पर एडवाइजरी जारी की जाती है जिसमें बताया जाता है कि आपको किस कम्पनी की हाइब्रिड मूंगफली का इस्तेमाल करना चाहिए। 

समय-समय पर होने वाले किसान चौपाल और ट्रेनिंग सेंटरों के साथ ही दूरदर्शन के द्वारा संचालित डीडी किसान चैनल का इस्तेमाल कर, युवा लोग मूंगफली उत्पादन के साथ ही अपनी स्वयं की आर्थिक स्थिति तो सुधार ही रहें हैं, पर इसके अलावा भारत के कृषि क्षेत्र को उन्नत बनाने में अपना भरपूर सहयोग दे रहे हैं। 

आशा करते हैं कि मूंगफली की इस चक्रीय खेती विधि की बारे में Merikheti.com कि यह जानकारी आपको पसंद आई होगी और आप भी भारत में तिलहन फसलों के उत्पादन को बढ़ाने के अलावा अपनी आर्थिक स्थिति में भी सुधार करने में सफल होंगे।

बाजरा देगा कम लागत में अच्छी आय

बाजरा देगा कम लागत में अच्छी आय

बाजरा खरीफ की मुख्य फसल है लेकिन अब इसे रबी सीजन में भी कई इलाकों में लगाया जाता है। गर्मियों में इसमें रोग भी कम आते हैं और साल भर यह खाद्य सुरक्षा में भी योगदान दे पाता है। इसके लिए यह जानना जरूरी है कि बाजरे की उन्नत खेती कैसे करें 

बाजरे की आधुनिक, वैज्ञानिक खेती

बाजरा कोस्टल क्राप है और किसी भी कोस्टल क्राप में पोषक तत्व गेहूं जैसी सामान्य फसलों के मुकाबले कहीं ज्यादा होते हैं। बाजरा की हाइब्रिड किस्मों का उत्पादन गेहूं की खेती से ज्यादा लाभकारी हो रहा हैं। कम पानी और उर्वरकों की मदद से इसकी खेती हो जाती है। अन्न के साथ साथ यह पशुओं को हरा और सूखा भरपूर चारा भी दे जाता है। बाजरे के दाने में 11.6 प्रतिशत प्रोटीन, 5.0 प्रतिशत वसा, 67.0 प्रतिशत कार्बोहाइडेट्स एवं 2.7 प्रतिशत खनिज लवण होते हैं। इसकी खेती के लिए दोमट एवं जल निकासी वाली मृदा उपयुक्त रहती है। रेगिस्तानी इलाकों में सूखी बुबाई कर पानी लगाने की व्यवस्था करें। एक हैक्टेयर खेत की बुवाई के लिए 4 से 5 कि.ग्रा. प्रमाणित बीज पर्याप्त रहता है। 

बाजरे की उन्नत किस्में, संकर

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बाजरा की संकर किस्में ज्यादा प्रचलन में हैं। इनमें राजस्थान के लिए आरएचडी 21 एवं 30,उत्तर प्रदेश के लिए पूसा 415,हरियाणा एचएचबी 505,67 पूसा 123,415,605,322, एचएचडी 68, एचएचबी 117 एवं इम्प्रूब्ड, गुजरात के लिए पूसा 23, 605, 415,322, जीबीएच 15, 30,318, नंदी 8, महाराष्ट्र के लिए पूसा 23, एलएलबीएच 104, श्रद्धा, सतूरी, कर्नाटक पूसा 23 एवं आंध्र प्रदेश के लिए आईसीएमबी 115 एवं 221 किस्म उपयुक्त हैं। बाजार में प्राईवेट कंपनियों जिनमें पायोनियर, बायर, महको, आदि की अनेक किस्में किसानों द्वारा लगाई जाती हैं। आरएचबी 177 किस्म जोगिया रोग रोधी तथा शीघ्र पकने वाली है। औसत पैदावार लगभग 10-20 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तथा सूखे चारे की पैदावार 40-45 क्विंटल है। आरएचबी 173 किस्म 75-80 दिन, आरएचबी 154 बाजरे की किस्म देश के अत्यन्त शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों के लिये अधिसूचित है। 70-75 दिन में पकती है। आईसीएमएच 356- यह सिंचित एवं बारानी, उच्च व कम उर्वरा भूमि के लिए उपयुक्त, 75-80 दिन में पकने वाली संकर किस्म हैं। तुलासिता रोग प्रतिरोधी इस किस्म की औसत उपज 20-26 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है। आईसीएमएच 155 किस्म 80-100 दिन में पककर 18-24 क्विंटल उपज देती है। एचएचबी 67 तुलासिता रोग रोधक है। 80-90 दिन में पककर 15-20 क्विंटल उपज देती है।

 

बीजोपचार

 

 बीज को नमक के 20 प्रतिशत घोल में लगभग पांच मिनट तक डुबो कर गून्दिया या चैंपा से फसल को बचाया जा सकता हैं। हल्के बीज व तैरते हुए कचरे को जला देना चाहिये। तथा शेष बचे बीजों को साफ पानी से धोकर अच्छी प्रकार छाया में सुखाने के बाद बोने के काम में लेना चाहिये। उपरोक्त उपचार के बाद प्रति किलोग्राम बीज को 3 ग्राम थायरम दवा से उपचारित करें। दीमक के रोकथाम हेतु 4 मिलीलीटर क्लोरीपायरीफॉस 20 ई.सी. प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें। 

बुवाई का समय एवं विधि

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 बाजरा की मुख्य फसल की बिजाई मध्य जून से मध्य जुलाई तक होती है वहीं गर्मियों में बाजारा की फसल लगाने के लिए मार्च में बिजाई होती है। बीज को 3 से 5 सेमी गहरा बोयें जिससे अंकुरण सफलतार्पूवक हो सके। कतार से कतार की दूरी 40-45 सेमी तथा पौधे से पौधे की दरी 15 सेमी रखें। 

खाद एवं उर्वरक

बाजरा की बुवाई के 2 से 3 सप्ताह पहले 10-15 टन गोबर की खाद प्रति हैक्टेयर की दर से देना चाहिए। पर्याप्त वर्षा वाले इलाकों में अधिक उपज के लिए 90 कि.ग्रा. नाइटोजन एवं 30 कि.ग्रा. फॉस्फोरस प्रति हैक्टेयर की दर से दें।

 

खरपतवार नियंत्रण

बाजरा की बुवाई के 3-4 सप्ताह तक खेत में निडाई कर खरपतवार निकाल लें। आवश्यकतानुसार दूसरी निराई-गुड़ाई के 15-20 दिन पश्चात् करें। जहां निराई सम्भव न हो तो बाजरा की शुद्ध फसल में खरपतवार नष्ट करने हेतु प्रति हेक्टेयर आधा कि.ग्रा. एट्राजिन सक्रिय तत्व का 600 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

 

सिंचाई

 

 बाजरा की सिंचित फसल की आवश्यकतानुसार समय-समय पर सिंचाई करते रहना चाहिए। पौधे में फुटान होते समय, सिट्टे निकलते समय तथा दाना बनते समय भूमि में नमी की कमी नहीं होनी चाहिए।

मक्का की उन्नत किस्में देगी शानदार उत्पादन, जानिये मक्का की उन्नत किस्मों के बारे में।

मक्का की उन्नत किस्में देगी शानदार उत्पादन, जानिये मक्का की उन्नत किस्मों के बारे में।

आज के इस आर्टिकल में आपको बताया जाएगा मक्का की उन्नत किस्मों के बारे में। मक्का की यह किस्में भारतीय मक्का अनुसंधान संस्थान लुधियाना स्थित ICAR द्वारा विकसित की गई है। 

मक्का की यह किस्में प्रति हेक्टेयर 95 क्विंटल उपज प्रदान करती है। मक्का की उन्नत किस्मों का चयन कर किसान ज्यादा उत्पादन कर सकता है और लाभ उठा सकता है। 

मक्का का उत्पादन भारत के बहुत से राज्यों में बड़े स्तर पर किया जाता है। क्योंकि बाजार में इसका अच्छा ख़ासा भाव मिल जाता है। इसके अलावा किसान मक्का की उन्नत किस्मों का चयन कर अधिक पैदावार प्राप्त कर सकते है। 

मक्के की यह उन्नत किस्में कम समय में अधिक पैदावार प्रदान की जाती है। मक्के की यह उन्नत किस्में भारतीय अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित की गई है। 

मक्का की IMH-224 किस्म

भारतीय मक्का अनुसंधान संस्थान द्वारा यह किस्म 2002 में  विकसित की गई है। मक्का की यह किस्म ज्यादातर उड़ीसा, बिहार, झारखण्ड और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में उगाई जाती है। 

मक्का की IMH-224 किस्म प्रति हेक्टर में 70 क्विंटल उपज प्रदान करती है। मक्का की ये किम लगभग 80 से 90 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। 

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मक्का की यह किस्म फुसैरियम डंठल सड़न, चारकोल रोट और मैडिस लीफ ब्लाइट जैसे रोगों से लड़ने में भी काफी सहायक है। 

मक्का की IQMH 203 किस्म

मक्का की यह किस्म Biofortified वैरायटी की मानी जाती है। भारतीय मक्का अनुसंधान संस्थान द्वारा यह किस्म 2021 में विकसित की गई है। 

मक्का की  यह IQMH 203  किस्म ज्यादातर छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश के किसानों के लिए विकसित की गई है। 

मक्का की यह किस्म 90 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। मक्का की यह किस्म चिलोपार्टेलस, फफूंदी और फ्युजेरियम डंठल सड़न जैसे रोगों से फसल को बचाती है। 

मक्का की PMH-1 LP किस्म

मक्का की यह किस्म ज्यादातर पंजाब, दिल्ली, हरियाणा और उत्तराखंड राज्यों में उगाई जाती है। मक्का की यह किस्म प्रति हेक्टेयर 90 क्विंटल उपज प्रदान करती है। 

मक्का की इस किस्म में रोग और कीट लगने की काफी कम संभावनाएं होती है। यह मक्का के फसल में लगने वाले कीट और रोगों को नियंत्रित करने में भी सहायक होती है। 

पुरे देश में अधिकतर किसान धान की खेती के बाद मक्का की खेती करते है। किसानों द्वारा मक्का की खेती पशुओ के हरे चारे, भुट्टे और दाने के लिए की जाती है। 

मक्का के फसल बहुत ही कम समय में पककर तैयार हो जाती है। किसानों द्वारा मक्का की उन्नत किस्मों का चयन करना चाहिए  ताकि अधिक पैदावार प्राप्त की जा सके। 

मक्के की खेती आर्द और उष्ण जलवायु में भी आसानी से की जा सकती है। मक्का की खेती के लिए अच्छी जल निकास वाली भूमि की आवश्यकता रहती है। 

कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक़ करें मक्का की खेती 

मक्का की बुवाई के लिए किसानों को गेहूँ की कटाई के बाद खेत में गोबर खाद को मिला देना चाहिए। खेत में गोबर खाद के प्रयोग से भूमि की उत्पादन क्षमता बढ़ती है। 

मक्का की बुवाई का समय मई और जून के बीच में होता है। यदि किसान वैज्ञानिकों के मुताबिक़ मक्का की खेती करता है, तो उन्हें ज्यादा मुनाफा हो सकता है। 

वैज्ञानिकों के मुताबिक़ किसानों को मक्का की उन्नत किस्मों का चयन करना चाहिए। कई बार किसान बिना चयन करे ही फसल की बुवाई कर देता है जिससे फसल में रोग लगने की भी ज्यादा आशंकाये रहती है और उत्पादन क्षमता भी घट जाती है। इसका पूरा असर फसल की गुणवत्ता पर पड़ता है। 

बुवाई के समय पर बीज का उपचार 

मक्का की बुवाई करने से पहले किसानों द्वारा बीज को उपचारित कर लेना चाहिए। बुवाई से पहले मक्का के प्रति किलो बीज में 2 ग्राम कार्बेंडाजिम और 1 मिलीलीटर इमिडाक्लोप्रिड से उपचारित करें।  

उसके बाद प्रति एकड़ बीज में 200 मिलीलीटर एजोटोबेक्टर और 200 मिलीलीटर पीएसबी मिला कर बीज को उपचारित किया जा सकता है। 

इन सभी के अलावा किसान बीज उपचार करने के लिए नत्रजन, पोटाश, जिंक सलफेट और फॉस्फोरस का उपयोग भी किया जा सकता है। 

बुवाई के समय रखे इन बातों का ख़ास ख्याल 

असंचित भूमि पर किसानों को उर्वरक की आधी मात्रा का उपयोग करना चाहिए। मक्का की बुवाई के बाद किसानों को खेत में अतराजीन और पेंदीमैथलीन को पानी में मिलाकर खेत में छिड़कना चाहिए। 

यह कीटनाशक खेत में होने वाली खरपतवार को नियंत्रित करता है। मक्का की फसल में झुलसा रोग लगने की भी ज्यादा सम्भावनाये होती है। इसीलिए फसल को झुलसा रोग से बचाने के लिए कवकनाशी कार्बेंडाजिम का छिड़काव भी कर सकते है। 

मक्का की फसल में रोग लगने की ज्यादा सम्भावनाये होती है। मक्के की फसल में धब्बेदार, गुलाबी तनाबेधक कीट और तनाबेधक लगने के ज्यादा सम्भावनाये रहती है। 

किसान मक्के की फसल के साथ मूँग, सोयाबीन और तिल की खेती भी कर सकता है। जिससे किसान बेहतर मुनाफा कमा सकता  है।

किसान भाई खरीफ सीजन में इस तरह करें मूंग की खेती

किसान भाई खरीफ सीजन में इस तरह करें मूंग की खेती

मूँग एक प्रमुख दलहनी फसल होने की वजह से यह एक उत्तम आय का माध्यम है। साथ ही, मूँग की फसल को पोषण के मामले में काफी ज्यादा अच्छा माना जाता है। 

भारत के अंदर खेती करने के लिये तीन फसल चक्र अपनाये जाते हैं, जिसमें रबी की फसल, खरीफ की फसल और जायद की फसल शम्मिलित हैं। किसान भाइयों ने रबी फसल की कटाई कर ली है एवं खरीफ फसल के लिये खेतों की तैयारी का काम चल रहा है। 

जो भी किसान भाई खरीफ सीजन में अच्छा मुनाफा अर्जित करना चाहते हैं, वे अपने खेतों में पलेवा, बीजों का चुनाव, सिंचाई की व्यस्था और खेतों में बाड़बंदी की तैयारी कर लें। 

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के निर्देशानुसार यह समय मूंग की खेती करने के लिये काफी ज्यादा अनुकूल है। मूंग एक प्रमुख दलहनी फसल है, जिसकी खेती कर्नाटक, उड़ीसा, तमिलनाडु, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में की जाती है। 

प्रमुख दलहनी फसल होने की वजह मूंग की फसल एक बेहतरीन कमाई का जरिया तो है ही, साथ में पोषण के मामले में मूंग की फसल को काफी महत्वपूर्ण माना जाता है।

मूंग की फसल हेतु खेत की तैयारी

अगर किसान इस खरीफ सीजन में मूंग की फसल लगाना चाह रहे हैं, तो वो खेतों में 2-3 बार बारिश होने पर गहरी जुताई का कार्य कर लें। इससे मृदा में छिपे कीड़े निकल जाते हैं और खरपतवार भी खत्म हो जाते हैं। 

गहरी जुताई से फसल की पैदावार बढ़ती है और स्वस्थ फसल लेने में भी सहायता मिलती है। किसान ध्यान रखें, कि गहरी जुताई करने के पश्चात खेत में पाटा चलाकर उसे एकसार कर लें। 

इसके पश्चात खेत में गोबर की खाद और आवश्यक पोषक तत्व भी मिला लें, जिससे बेहतरीन पैदावार प्राप्त हो सके।

मूंग की फसल हेतु बीजों का चयन

जून के अंतिम सप्ताह से लेकर जुलाई के प्रथम सप्ताह तक किसान खरीफ मूंग की बुवाई कर सकते हैं। बुवाई के लिये किसानों को बेहतरीन गुणवत्ता वाले उपयुक्त बीजों का ही चयन करना चाहिये, इससे मूंग की फसल में कीड़े एवं बीमारियां लगने की संभावना काफी कम रहती है। 

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मूंग की फसल की बुवाई

खेत में मूंग के बीज की बुवाई करने से पहले उनका बीजशोधन अवश्य करना चाहिए। बतादें कि इससे स्वस्थ और रोगमुक्त फसल लेने में विशेष सहायता मिलती है। 

मूंग के बीजों को कतारों में ही बोयें, जिससे निराई-गुड़ाई करने में काफी सुगमता रहे और खरपतवार भी आसानी से निकाले जा सकें।

मूंग की फसल में सिंचाई की व्यवस्था

हालांकि, मूंग की फसल के लिये अत्यधिक जल की आवश्यकता नहीं पड़ती है। 2 से 3 बरसातों में ही फसल को अच्छी खासी नमी मिल जाती है। परंतु, फिर भी फलियां बनने के दौरान खेतों में हल्की सिंचाई कर देनी चहिये। 

शाम के वक्त हल्की सिंचाई करने पर मिट्टी को नमी मिल जाती है। इस बात का खास ख्याल रखें कि फसल पकने के 15 दिन पहले ही सिंचाई का काम बंद कर दें।

मूंग की फसल में कीटनाशक और खरपतवार नियंत्रण

दूसरी फसलों की तरफ मूंग की फसल में भी कीट-रोग लगने की संभावना बनी रहती है। इस वजह से समय-समय पर निराई-गुड़ाई का भी कार्य करते रहें। खेतों में उगे खरपतवारों को उखाड़कर जमीन के अंदर दबा दें। साथ ही, रोगों से भी फसल की निगरानी करते रहें। 

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मूंग की फसल की कटाई-गहाई

खरीफ मूंग की फसल कम समय में पकने वाली फसल है। यह सामान्य तौर पर 65-70 दिनों के अंदर पककर तैयार हो जाती है। जून-जुलाई के मध्य बोई गई फसल सिंतबर-अक्टूबर के मध्य पककर तैयार हो जाती है। 

मूंग की फलियां हरे रंग से भूरे रंग की होने लग जाऐं तो कटाई-गहाई का कार्य वक्त रहते कर लेना चाहिये।

सोयाबीन की खेती कैसे होती है

सोयाबीन की खेती कैसे होती है

सोयाबीन की खेती

सोयाबीन विश्व की प्रमुख तिलहनी फसल है। यह विश्व खाद्य तेल उत्पादन में करीब 30 फ़ीसदी का योगदान देती है। इसमें 20% तेल 40% प्रोटीन होता है। सोयाबीन का स्थान भारत की मुख्य फसलों में से एक है। विश्व में क्षेत्रफल एवं उत्पादन की दृष्टि से भारत उसमें प्रमुख स्थान रखता है।भारत में सोयाबीन की औसत उत्पादकता 11 से 12 कुंतल प्रति हेक्टेयर है। भारत में सोयाबीन खरीफ में उगाई जाने वाली एक प्रमुख  फसल है। हमारे देश में
सोयाबीन उत्पादन प्रमुख रूप से मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक में होती है। सोयाबीन के कुल क्षेत्र एवं उत्पादन में मध्यप्रदेश एवं महाराष्ट्र का विशेष योगदान है। देश में सोयाबीन उत्पादन में प्रथम स्थान पर है। सोयाबीन से तेल प्राप्त होने के अलावा दूध दही पनीर आदि खाद्य पदार्थ भी तैयार किए जाते हैं।

मिट्टी

सोयाबीन की अच्छी पैदावार के लिए समतल एवं जल निकासी वाली दोमट भूमि अच्छी रहती है।इसकी खेती क्षारीय तथा अम्लीय भूमियां छोड़कर हर तरह की जमीन में की जा सकती है। काली मिट्टी में भी सोयाबीन की खेती अच्छी होती है। वैज्ञानिक भाषा में जिस मिट्टी का पीएच मान 6:30 से 7:30 के बीच हो वह इसकी खेती के लिए अच्छी होती है।

बीज

खरीफ में लगाई जानी फसल के लिए 70 से 75 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है जबकि ग्रीष्म एवं वसंत ऋतु के लिए 100 से 125  किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज चाहिए।अच्छी पैदावार के लिए प्रमाणित या आधारित बीज लेना चाहिए और बुवाई से पूर्व थीरम या कार्जाबन्कडाजिम नामक दवा से ढाई ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीज उपचार करना चाहिए। इसके अलावा सोयाबीन में नाइट्रोजन स्थिरीकरण बाजार ग्रंथियों के शीघ्र विकास के लिए 20 को राइजोबियम कल्चर से उपचारित करना चाहिए । पौधों के अच्छे विकास के लिए बीज को पीएसबी कल्चर से भी उपचारित करना चाहिए। इससे जमीन में मौजूद तत्वों को व्यक्ति दिया पौधे की जड़ों तक पहुंचाने में सुगमता लाता है। उक्त कल्चरों से बीज को उपचारित करने के लिए एक बर्तन में पानी लेकर 100 ग्राम गुड़ या शक्कर घोलकर उसमें इन कल्चर को मिलाया जाता है और उनका लेप बीज पर कर दिया जाता है।

बुवाई का समय

अच्छे उत्पादन के लिए बुवाई के समय का प्रमुख स्थान होता है। खरीफ सीजन में 25 जून से 15 जुलाई के मध्य का समय इसकी खेती के लिए उपयुक्त माना गया है। कम समय में पकने वाली किस्मों का चयन करें ताकि मौसमी दुष्प्रभाव से नुकसान को बचाया जा सके। मध्य भारत के कुछ क्षेत्रों व दक्षिण भारत में सोयाबीन बसंत यानी कि जायद ऋतु में बोई जाती है । उसकी बुबाई का उपयुक्त समय 15 फरवरी से 15 मार्च के बीच रहता है। इसकी बिजाई में पंक्ति से पंक्ति की दूरी  45 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 3 से 5 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। इसके अलावा 20 30 से 4 सेंटीमीटर से ज्यादा गहरा नहीं डालना चाहिए।

उर्वरक प्रबंधन

अच्छे उत्पादन के लिए 10 टन सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर डालनी चाहिए।इसके अलावा नाइट्रोजन 25 किलोग्राम, फास्फोरस 80, किलोग्राम एवं पोटाश 50 किलोग्राम की दर से डालाना चाहिए। इसके अतिरिक्त 25 किलोग्राम सल्फर का प्रयोग करने से कई तरह की बीमारियां नहीं आती हैं। फास्फोरस की पूर्ति के लिए यदि डीएपी डाला जा रहा है तो सल्फर अलग से नहीं देनी चाहिए।

जल प्रबंधन

चुकी सोयाबीन की खेती बरसात के सीजन में की जाती है इसलिए पानी की ज्यादा जरूरत नहीं होती लेकिन यदि बरसात कम हो तो क्रांतिक अवस्थाओं, शाखाओं के विकास के समय फूल बनते समय एवं फलियां बनते समय और दाने के विकसित होते समय पानी लगाना चाहिए। वसंत ऋतु में 12 से 15 दिन के अंतराल पर 45 से चाहिए करनी होती हैं।

खरपतवार नियंत्रण

सोयाबीन की खरीफ ऋतु की फसल में खरपतवारओं का अधिक प्रयोग होता है जैसे उपज पर 40 से 50% तक नकारात्मक प्रभाव दिखता है। इसके नियंत्रण के लिए बुवाई के 20 से 25 दिन बाद हैंड हो द्वारा कतारों को मध्य में होगे खरपतवार को नष्ट कर देना चाहिए। इसके बाद 30 से 40 दिन बाद निराई गुड़ाई करके और है साथ में किया जाना चाहिए। रसायनिक नियंत्रण के लिए भी बाजार में कई तरह की दवाई मौजूद हैं।

बीमारी नियंत्रण, रोग

  1. भूरा धब्बा रोग फसल में फूल के समय पर आता है। इस रोग के धब्बे टेढ़े मेढ़े, लाल भूरे व किनारों से हल्के हरे होते हैं। अधिक प्रकोप होने पर पत्तियां गिर जाती हैं। इससे बचाव के लिए स्वस्थ बीज का प्रयोग करें। मध्यम रोग प्रतिरोधी पालम सोया, हरित सोया, ली और ब्रैग जैसी किस्में लगाएं।
  2. बैक्टीरियल पश्चुयुल रोग के कारण पत्तियों के दोनों सदनों पर पीले उभरे हुए धब्बे प्रकट होते हैं जो बाद में लाल बुरे हो जाते हैं। छोटे-छोटे ऐसे ही धब्बे फलियों पर भी प्रकट होते हैं। इससे बचाव के लिए पंजाब नंबर 1 किस ना लगाएं रोग प्रतिरोधक किस्में ही लगाएं।
  3. पीला म्यूजिक विषाणु जनित रोग है। यह रोग सफेद मक्खी के माध्यम से फैलता है। इसके कारण पत्तों पर झुर्रियां पड़ जाती हैं और पत्ते और पौधे छोटे रह जाते हैं फलियां कम लगती हैं । मौसम में नमी अधिक होने पर तथा तापमान 22 से 25 डिग्री सेंटीग्रेड के बीच होने पर रोग तेजी से फैलता है। बचाव के लिए विषाणु रहित बीज का प्रयोग करें और एक ही पौधे को तुरंत खेत से निकाल दें। गर्म क्षेत्र में ब्रैग किस्म न लगाएं। निचले क्षेत्रों में शिवालिक किस्म लगाने से बचें।

कीट नियंत्रण

  1. कूबड़ कीट की सुन्डियां पत्तों को क्षति पहुंचाती हैं। इससे पौधे की बढ़वार नहीं हो पाती है। बचाव के लिए फसल पर 50 मिलीलीटर मेलाथियान या 25 मिलीलीटर डाईक्लोरोवास 50 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। सुंडी को इकट्ठा करके नष्ट कर देना चाहिए। यह दवाएं अगर प्रतिबंधित की गई हैं तो इनके विकल्प के रूप में जो दवाएं बाजार में मौजूद हैं वह डालें।
  2. बीन बाग कीट युवा और प्रौढ़ अवस्था में पत्तों का रस चूसते हैं। इससे पत्तों की ऊपर की सतह पर छोटे-छोटे सफेद या पीले धब्बे पड़ जाते हैं। बाद में यह पत्ते सूख कर गिर जाते हैं। बचाव के लिए 50 मिलीलीटर मोनोक्रोटोफॉस या 50 मिलीलीटर साइपरमैथरीन 50 लीटर पानी में घोलकर प्रति बीघा छिड़काव करना चाहिए।
  3. लपेटक बीटल भृंग फसल को शुरुआती दौर में 15 से 20 दिन तक तना, शाखा और पत्तियों को बहुत नुकसान पहुंचाता है। इसके बाद यह कीट तने में सुरंग बना देता है। इससे पौधे के ऊपर हिस्से मुरझा जाते हैं। बचाव के लिए फसल को खरपतवारओं से मुक्त रखें प्रकोप शुरू होने पर 50 मिलीलीटर मोनोक्रोटोफॉस 50 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।

सोयाबीन में रासायनिक खरपतवार नियंत्रण

  1. घास समुदाय वाले खरपतवार के नियंत्रण के लिए पेंडीमिथालिन स्टांप की ढाई लीटर मात्रा डुबाई के दो दिन बाद पर्याप्त पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।
  2. घास कुल वाले खरपतवार एवं चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार को नियंत्रित करने के लिए फ्लूक्लोरालीन बाशालिन की 2 लीटर मात्रा बोने से पूर्व छिड़काव करें तथा अच्छी तरह से मिट्टी में मिला दें।
  3. केवल चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार ओं को मारने के लिए मेटसल्फ्यूरान 4 से 6 ग्राम प्रति हेक्टेयर मोबाइल के 20 से 25 दिन बाद छिड़काव करें।
ICAR ने बताए सोयाबीन कीट एवं रोग नियंत्रण के उपाय

ICAR ने बताए सोयाबीन कीट एवं रोग नियंत्रण के उपाय

मानसून की लेटलतीफी के कारण भारत के राज्यों में सोयाबीन की खेती की तैयारी में भी इस साल देरी हुई। अवर्षा और अतिवर्षा की मार के बाद किसी तरह खेत में बोई गई सोयाबीन की फसल पर अब कीट पतिंगों का खतरा मंडरा रहा है। इस खतरे के समाधान के लिए भारत के कृषि विज्ञानियों ने अनुभव एवं शोध के आधार पर उपयोगी तरीके सुझाए हैं।

सोयाबीन कृषकों के लिए ICAR की उपयोगी सलाह

भाकृ.अनु.प. के भारतीय सोयाबीन अनुसन्धान सस्थान (ICAR-Indian Institute of Soybean Research) इन्दौर, ने सोयाबीन फसल की रक्षा के लिए उपयोगी एडवायजरी (Advisory) जारी की है। आपको बता दें, इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च (Indian Council of Agricultural Research/ICAR) यानी भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (भाकृअनुप) कृषि कल्याण हित में काम करने वाली संस्था है। भाकृअनुप (ICAR) भारत सरकार के कृषि मंत्रालय में कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग के अधीन एक स्वायत्तशासी संस्था के तौर पर कृषि जगत के कल्याण संबंधी सेवाएं प्रदान करती है।

सोयाबीन पर मौजूदा खतरा

सोयाबीन की खेती आधारित भारत के प्रमुख राज्यों मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र एवं राजस्थान पर विविध रोगों का प्रभाव देखा जा रहा है। इन राज्यों के कई जिलों में सोयाबीन की फसल पर तना मक्खी, चक्र भृंग एवं पत्ती खाने वाली इल्ली तथा रायजोक्टोजनिया एरिअल ब्लाइट, पीला मोजेक वायरस रोग के संक्रमण की स्थिति देखी जा रही है। भाकृअनुप (ICAR) की इस संबंध में कृषकों को सलाह है कि, वे अपनी फसल की सतत निगरानी करें एवं किसी भी कीट या रोग के प्रारंभिक लक्षण दिखते ही, नियंत्रण के उपाय अपनाएं।

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तम्बाखू की इल्ली

सोयाबीन की फसल में तम्बाखू की इल्ली एवं चने की इल्ली के प्रबंधन के लिए बाजार में उपलब्ध कीट-विशेष फिरोमोन ट्रैप्स का उपयोग करने की आईसीएआर (ICAR) ने सलाह दी है। इन फेरोमोन ट्रैप में 5-10 पतंगे दिखने का संकेत यह दर्शाता है कि इन कीड़ों का प्रादुर्भाव आप की फसल पर हो गया है। इसका संकेत यह भी है कि, यह प्रादुर्भाव अभी प्रारंभिक अवस्था में है। अतः शीघ्र अतिशीघ्र इनके नियंत्रण के लिए उपाय अपनाने चाहिए। खेत के विभिन्न स्थानों पर निगरानी करते हुए यदि आपको कोई ऐसा पौधा मिले जिस पर झुंड में अंडे या इल्लियां हों, तो ऐसे पौधों को खेत से उखाड़कर अलग कर दें।

तना मक्खी

तना मक्खी के नियंत्रण के लिए पूर्व मिश्रित कीटनाशक थायोमिथोक्सम (Thiamethoxam) 12.60%+लैम्ब्डा साह्यलोथ्रिन (Lambda-cyhalothrin) 09.50% जेडसी (ZC) (125 ml/ha) का छिड़काव करने की सलाह भाकृअनुप (ICAR) के वैज्ञानिकों ने दी है। चक्र भृंग-(गर्डल बीटल) के नियंत्रण हेतु प्रारंभिक अवस्था में ही टेट्रानिलिप्रोल 18.18 एस.सी. (250- 300 मिली/हे) या थायक्लोप्रिड 21.7 एस.सी. (750मिली/हे) या प्रोफेनोफॉस 50 ई.सी.(1 ली/हे.) या इमामेक्टीन बेन्जोएट (425 मिली/हे.) का छिड़काव करने की कृषकों को सलाह दी गई है। इसके अलावा रोग के फैलाव की रोकथाम हेतु प्रारंभिक अवस्था में ही पौधे के ग्रसित भाग को तोड़कर नष्ट करने की भी सलाह दी गई है।

इल्लियों का नियंत्रण

चक्र भृंग तथा पत्ती खाने वाली इल्लियों के एक साथ नियंत्रण हेतु पूर्वमिश्रित कीटनाशक क्लोरएन्ट्रानिलिप्रोल 09.30 % + लैम्ब्डा साह्यलोथ्रिन 04.60 % ZC (200 मिली/हे) या बीटासायफ्लुथ्रिन + इमिडाक्लोप्रिड (350 जमली/है) या पूर्वमिश्रित थायमिथोक्सम़ + लैम्बडा साह्यलोथ्रिन (125 मिली/है) का जिड़काव करने की सलाह दी गई है। इनके छिड़काव से तना मक्खी का भी नियत्रंण किया जा सकता है। पत्ती खाने वाली इल्लियां (सेमीलूपर, तम्बाकू की इल्ली एवं चने की इल्ली) होने पर इनके नियंत्रण के लिए किनालफॉस 25 ई.सी. (1 ली/हे), या ब्रोफ्लानिलिड़े 300 एस.सी. (42-62 ग्राम/है) आदि में से किसी एक का प्रयोग करने की सलाह कृषकों को दी गई है।

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पौधों को उखाड़ दें

पीला मोजेक रोग के नियंत्रण हेतु सलाह है कि तत्काल रोगग्रस्त पौधों को खेत से उखाड़कर अलग कर दें। इन रोगों को फैलाने वाले वाहक सफेद मक्खी की रोकथाम हेतु पूर्वमिश्रित कीटनाशक थायोमिथोक्सम + लैम्ब्डा साह्यलोथ्रिन (125 मिली/है) रसायन का छिड़काव करने की सलाह दी गई है। इसके छिड़काव से तना मक्खी का भी नियंत्रण किया जा सकता है। सफेद मक्खी के नियंत्रण हेतु कृषकगण, अपने खेत में विभिन्न स्थानों पर पीला स्टिकी ट्रैप लगाकर सोयाबीन की फसल की रक्षा कर सकते हैं। कुछ क्षेेत्रों में रायजोक्टोनिया एरिअल ब्लाइट का प्रकोप होने की सूचना प्राप्त होने की आईसीएआर (ICAR) ने जानकारी दी है। इसके उपचार के लिए वैज्ञानिकों ने हेक्साकोनाझोल %5ईसी (1 मिली/ली पानी) का छिड़काव करने का सुझाव दिया गया है।

जैविक सोयाबीन उत्पादन

जैविक सोयाबीन उत्पादन में रुची रखने वाले कृषक, पत्ती खाने वाली इल्लियों (सेमीलूपर, तम्बाखू की इल्ली) की छोटी अवस्था में रोकथाम हतु बेसिलस थुरिन्जिएन्सिस आदि का निर्धारित मात्रा में प्रयोग कर सकते हैं। प्रकाश प्रपंच का उपयोग करने की भी सलाह दी गई है।

कीट एवं रोग प्रबंधन के अन्य उपाय

सोयाबीन पर लगने वाले कीट एवं रोग के प्रबंधन के रासायनिक छिड़काव के अलावा अन्य प्रकृति आधारित उपाय भी हैं।

बर्ड पर्चेस

सोयाबीन की फसल में पक्षियों के बैठने के लिए ”T“ आकार के बर्ड पर्चेस लगाने की भी वैज्ञानिकों ने कृषि मित्रों को सलाह दी है। इससे कीट-भक्षी पक्षियों द्वारा भी इल्लियों की संख्या कम करने में प्राकृतिक तरीके से सहायता मिलती है।

सावधानियां

  • कीट एवं रोग नियंत्रण के लिए केवल उन्ही रसायनों का प्रयोग करें जो सोयाबीन की फसल में अनुशंसित हों।
  • कीटनाशक या फफूंद नाशक के छिड़काव के लिए सदैव पानी की अनुशंसित मात्रा का ही उपयोग करें।
  • किसी भी प्रकार का कृषि-आदान क्रय करते समय दुकानदार से हमेशा पक्का बिल लें जिस पर बैच नंबर एवं एक्सपायरी दिनांक आदि का स्पष्ट उल्लेख हो।



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सोयाबीन कीट एवं रोग नियंत्रण प्रबंधन पर आधारित यह लेख भारतीय कृषक अनुसंधान परिषद, भारतीय सोयाबीन अनुसन्धान संस्थान, इन्दौर द्वारा जारी कृषि आधारित सलाह पर आधारित है। लेख में वर्णित रसायन एवं उनकी मात्रा का उपयोग करने के पहले कृषि सलाहकारों, केवीके के वैज्ञानिकों, दवा विक्रेता से उचित परामर्श अवश्य प्राप्त करें। इस बारे में आईसीएआर (ICAR) की विस्तृत जानकारी के लिए लिंकhttps://www.icar.org.in/weather-based-crop-advisory पर क्लिक करें। यहां वेदर बेस्ड क्रॉप एडवाइज़री (Weather based Crop Advisory) विकल्प में आपको सोयाबीन की सलाह संबंधी पीडीएफ फाइल डाउनलोड करने मिल जाएगी।

सोयाबीन की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

सोयाबीन की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि सोयाबीन की खेती ज्यादा हल्की, हल्की एवं रेतीली जमीन को छोड़कर हर तरह की जमीन पर सहजता से की जा सकती है। लेकिन, जल की निकासी वाली चिकनी दोमट मृदा वाली भूमि सोयाबीन के लिये ज्यादा अच्छी होती है। ऐसे खेत जिनमें पानी टिकता हो, उनमें सोयाबीन न बोऐं। ग्रीष्मकालीन जुताई 3 साल में कम से कम एक बार जरुर करनी चाहिये। बारिश शुरू होने पर 2 या 3 बार बखर और पाटा चलाकर भूमि को तैयार करलें। इससे नुकसान पहुंचाने वाले कीटों की समस्त अवस्थायें खत्म हो जाऐंगी। ढेला रहित एवं भुरभुरी मृदा वाली भूमि सोयाबीन के लिये उपयुक्त होती है। खेत के अंदर जलभराव से सोयाबीन की फसल पर दुष्प्रभाव पड़ता है। इसलिए ज्यादा उपज के लिये खेत में जल निकास की समुचित व्यवस्था करना जरूरी होता है। जहां तक संभव हो अंतिम बखरनी और पाटा वक्त से करें, जिससे अंकुरित खरपतवार का खात्मा हो सकें। साथ ही, मेंढ़ और कूड़ (रिज एवं फरों) तैयार कर सोयाबीन की बिजाई करें। अगर हम सोयाबीन की खेती के सन्दर्भ में बीज दर की बात करें, तो छोटे दाने वाली किस्में - 28 किलोग्राम प्रति एकड़, मध्यम दाने वाली किस्में - 32 किलोग्राम प्रति एकड़, बड़े दाने वाली किस्में - 40 किलोग्राम प्रति एकड़ 

सोयाबीन की खेती में बीजोपचार

सोयाबीन के अंकुरण को बीज एवं मृदा जनित रोग काफी प्रभावित करते हैं। इनको नियंत्रित करने हेतु बीज को थायरम या केप्टान 2 ग्राम, कार्बेडाजिम या थायोफिनेट मिथाइल 1 ग्राम मिश्रण प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये। या फिर ट्राइकोडरमा 4 ग्राम / कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम प्रति किलों ग्राम बीज की दर से उपचारित करके बिजाई करें।

कल्चर का इस्तेमाल

आपकी जानकारी के लिए फफूंदनाशक ओषधियों से बीजोपचार के बाद बीज को 5 ग्राम रायजोबियम एवं 5 ग्राम पीएसबी कल्चर प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें। उपचारित बीज को छाया में रखना चाहिए और जल्दी बुवाई करनी चाहिये। याद रहे कि फफूंद नाशक ओषधि और कल्चर को एक साथ नहीं मिलाऐं। 

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सोयाबीन की बिजाई हेतु समुचित वक्त और तरीका

सोयाबीन की बिजाई हेतु जून के आखिरी सप्ताह से जुलाई के पहले सप्ताह तक की समयावधि सबसे उपयुक्त है। बिजाई के दौरान अच्छे अंकुरण के लिए जमीन में 10 सेमी गहराई तक समुचित नमी होनी चाहिये। जुलाई के पहले सप्ताह के बाद बोनी की बीज दर 5-10 प्रतिशत अधिक कर देनी चाहिए। कतारों से कतारों का फासला 30 से.मी. (बोनी किस्मों के लिये) और 45 से.मी. बड़ी किस्मों के लिये होता है। 20 कतारों के पश्चात एक कूंड़ जल निथार तथा नमी सरंक्षण हेतु रिक्त छोड़ देना चाहिए। बीज 2.50 से 3 से.मी. गहराई पर ही बोयें। सोयाबीन एक नकदी फसल है, जिसको किसान बाजार में बेचकर तुरंत धन अर्जित कर सकते हैं। 

सोयाबीन की फसल के साथ अंतरवर्तीय फसलें कौन-कौन सी हैं

सोयाबीन के साथ अंतरवर्तीय फसलों के तौर पर अरहर सोयाबीन (2:4), ज्वार सोयाबीन (2:2), मक्का सोयाबीन (2:2), तिल सोयाबीन (2:2) अंतरवर्तीय फसलें अच्छी मानी जाती हैं। 

समन्वित पोषण प्रबंधन कैसे करें

बतादें, कि बेहतर ढ़ंग से सड़ी हुई गोबर की खाद (कम्पोस्ट) 2 टन प्रति एकड़ आखिरी बखरनी के दौरान खेत में बेहतर ढ़ंग से मिला दें। साथ ही, बिजाई के दौरान 8 किलो नत्रजन 32 किलो स्फुर 8 किलो पोटाश एवं 8 किलो गंधक प्रति एकड़ के अनरूप दें। यह मात्रा मृदा परीक्षण के आधार पर कम-ज्यादा की जा सकती है। नाडेप, फास्फो कम्पोस्ट के इस्तेमाल को प्राथमिकता दें। रासायनिक उर्वरकों को कूड़ों में तकरीबन 5 से 6 से.मी. की गहराई पर डालना चाहिये। वहीं, गहरी काली मिट्टी में जिंक सल्फेट 25 किलोग्राम प्रति एकड़ एवं उथली मृदाओं में 10 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से 5 से 6 फसलें लेने के उपरांत इस्तेमाल करना चाहिये। 

सोयाबीन की खेती में खरपतवार प्रबंधन कैसे करें

फसल के शुरूआती 30 से 40 दिनों तक खरपतवार को काबू करना बेहद जरूरी होता है। तो वहीं बतर आने पर डोरा अथवा कुल्फा चलाकर खरपतवार की रोकथाम करें एवं दूसरी निदाई अंकुरण होने के 30 और 45 दिन उपरांत करें। 15 से 20 दिन की खड़ी फसल में घांस कुल के खरपतवारों को समाप्त करने के लिये क्यूजेलेफोप इथाइल 400 मिली प्रति एकड़ और घास कुल और कुछ चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के लिये इमेजेथाफायर 300 मिली प्रति एकड़ की दर से छिड़काव की अनुशंसा है। नींदानाशक के उपयोग में बिजाई के पहले फ्लुक्लोरेलीन 800 मिली प्रति एकड़ अंतिम बखरनी के पूर्व खेतों में छिड़कें और दवा को बेहतर ढ़ंग से बखर चलाकर मिला दें। बिजाई के पश्चात और अंकुरण के पहले एलाक्लोर 1.6 लीटर तरल या पेंडीमेथलीन 1.2 लीटर प्रति एकड़ या मेटोलाक्लोर 800 मिली प्रति एकड़ की दर से 250 लीटर जल में मिलाकर फ्लैटफेन अथवा फ्लैटजेट नोजल की मदद से सारे खेत में छिड़काव करें। तरल खरपतवार नाशियों की जगह पर 8 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से ऐलाक्लोर दानेदार का समान भुरकाव किया जा सकता है। बिजाई के पूर्व एवं अंकुरण पूर्व वाले खरपतवार नाशियों हेतु मृदा में पर्याप्त नमी व भुरभुरापन होना काफी जरूरी है। 

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सोयाबीन की खेती में सिंचाई किस तरह करें

सोयाबीन खरीफ मौसम की फसल होने की वजह से आमतौर पर सोयाबीन को सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है। फलियों में दाना भरण के दौरान मतलब कि सितंबर माह में अगर खेत में नमी पर्याप्त न हो तो आवश्यकतानुसार एक या दो हल्की सिंचाई करना सोयाबीन की बेहतरीन पैदावार लेने के लिए फायदेमंद है। 

सोयाबीन की फसल में लगने वाले कीट

सोयाबीन की फसल में बीज और छोटे पौधे को हानि पहुंचाने वाला नीलाभृंग (ब्लूबीटल) पत्ते खाने वाली इल्लियां, तने को दुष्प्रभावित करने वाली तने की मक्खी एवं चक्रभृंग (गर्डल बीटल) आदि का संक्रमण होता है। कीटों के आक्रमण से 5 से 50 प्रतिशत तक उपज में गिरावट आ जाती है। इन कीटों की रोकथाम करने के उपाय निम्नलिखित हैं: 

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कृषिगत स्तर पर कीटों की रोकथाम

खेती के स्तर पर यदि हम कीट नियंत्रण की बात करें तो खेत की ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करना। मानसून की वर्षा के पूर्व बिजाई ना करना अति आवश्यक बातें हैं। साथ ही, मानसून आगमन के बाद बिजाई शीघ्रता से संपन्न करें। खेत नींदा रहित ही रखें। सोयाबीन की फसल के साथ ज्वार या मक्का की अंतरवर्तीय फसल करें। खेतों को फसल अवशेषों से पूर्णतय मुक्त रखें और मेढ़ों को बिल्कुल साफ रखें। 

रासायनिक स्तर पर कीटों की रोकथाम

सोयाबीन की बिजाई के दौरान थयोमिथोक्जाम 70 डब्ल्यू.एस. 3 ग्राम दवा प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करने से शुरूआती कीटों की रोकथाम होती है। वहीं, अंकुरण की शुरुआत होते ही नीले भृंग कीट की रोकथाम के लिये क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत या मिथाइल पैराथियान (फालीडाल 2 प्रतिशत या धानुडाल 2 प्रतिशत) 10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से भुरकाव करें। विभिन्न तरह की इल्लियां पत्ती, छोटी फलियों एवं फलों को खाके खत्म कर देती हैं। इन कीटों की रोकथाम करने के लिये घुलनशील दवाओं की निम्नलिखित मात्रा 300 से 325 लीटर जल में घोल कर छिड़काव करें। हरी इल्ली की एक प्रजाति जिसका सिर पतला एवं पिछला हिस्सा चौड़ा होता है। सोयाबीन के फूलों एवं फलियों को खाकर खत्म कर देती है, जिससे पौधे फली विहीन हो जाते हैं। फसल बांझ होने जैसी लगती है। सोयाबीन की फसल पर तना मक्खी, चक्रभृंग, माहो हरी इल्ली तकरीबन एक साथ ही आक्रमण करते हैं। अत: पहला छिड़काव 25 से 30 दिन पर और दूसरा छिड़काव 40-45 दिन का फसल पर जरूर करें। 

जैविक तौर पर कीट नियंत्रण

कीटों की शुरुआती अवस्था में जैविक कीट पर काबू करने के लिए बी.टी. एवं व्यूवेरीया बेसियाना आधारित जैविक कीटनाशक 400 ग्राम या 400 मि.ली. प्रति एकड़ की दर से बोवाई के 35-40 दिन तथा 50-55 दिनों के उपरांत छिड़काव करें। एन.पी.वी. का 250 एल.ई. समतुल्य का 200 लीटर जल में घोल बनाके प्रति एकड़ छिड़काव करें। रासायनिक कीटनाशक के स्थान पर जैविक कीटनाशकों को परिवर्तित कर डालना फायदेमंद होता है। गर्डल बीटल प्रभावित इलाकों में जे.एस. 335, जे.एस. 80-21, जे.एस. 90-41 लगाऐं। निंदाई के दौरान प्रभावित टहनियां तोड़कर बर्बाद कर दें। कटाई के उपरांत बंडलों को प्रत्यक्ष तौर पर गहाई स्थल पर ले जाएं। तने की मक्खी के प्रकोप के समय छिड़काव शीघ्र करें। 

सोयाबीन की फसल की कटाई और गहाई

ज्यादातर पत्तियों के सूख कर झड़ जाने की स्थिति में और 10 प्रतिशत फलियों के सूख कर भूरा होने पर फसल की कटाई हेतु तैयार हो जाती है। पंजाब 1 पकने के 4-5 दिन बाद, जे.एस. 335, जे.एस. 76-205 एवं जे.एस. 72-44, जेएस 75-46 आदि सूखने के तकरीबन 10 दिन उपरांत चटकना शुरू हो जाती है। कटाई के उपरांत गट्ठों को 2-3 दिन तक सुखाना जरूरी है। बतादें, कि फसल कटाई के उपरांत जब फसल पूर्णतय सूख जाए तो गहाई कर दोनों को अलग कर देना चाहिए। फसल गहाई बैलों, थ्रेसर, ट्रेक्टर तथा हाथ द्वारा लकड़ी से पीटकर करना चाहिए। जहां तक मुमकिन हो बीज के लिये गहाई लकड़ी से पीट कर करना चाहिये, जिससे अंकुरण को हानि न पहुँचे।

जानिए कैसे करें उड़द की खेती

जानिए कैसे करें उड़द की खेती

उड़द की खेती भारत में लगभग सभी राज्यों में होती है. ये मनुष्यों के लिए तो फायदेमंद है ही साथ ही खेत की सेहत के लिए भी बहुत फायदेमंद है. हमारे देश में दालों की भारी कमी है. इस वजह से भी ये कभी महंगी और ज्यादा मांग वाली दाल है. 

भारत सरकार ने 2019-20 के दौरान 4 लाख टन के कुल उड़द आयात की अनुमति दी थी। यह दर्शाता है की दाल की मांग की पूर्ती हम अपने उत्पादन से नहीं कर पाते हैं इसके लिए हमें दाल के लिए विदेशों पर निर्भर रहना पड़ता है. 

पिछले वित्त वर्ष में भारत सरकार ने 4 लाख टन के आयात की अनुमति दी थी. 2019 - 20 में उद्योग के सूत्रों का कहना है कि वर्तमान में, उड़द केवल म्यांमार में उपलब्ध है। 

म्यांमार में उड़द का हाजिर मूल्य लगभग 810 डॉलर प्रति क्विंटल है। भारत को बारिश की शुरुआत में देरी के कारण उड़द के आयात का सहारा लेना पड़ा, जिसके बाद फसल की अवधि के दौरान अधिक और निरंतर वर्षा के कारण उत्पादन में गिरावट आई। 

 उड़द या किसी भी दलहन वाली फसल के उत्पादन से किसानों को फायदा ही है. बशर्ते की आपकी जमीन उस फसल को पकड़ने वाली हो. कई बार देखा गया है की सब कुछ ठीक होते हुए भी उड़द की फसल नहीं हो पाती है. 

उसके पीछे का कारण कोई भी हो सकता है जैसे मिटटी में पोषण तत्वों की कमी, पानी का सही न होना. इसके लिए हमें अपने खेत की मिटटी और पानी का समय समय पर टेस्ट करना चाहिए. 

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खेत की तैयारी:

उड़द के लिए खेत की तैयारी करते समय पहली जुताई हैंरों से कर देना चाहिए उसके बाद कल्टीवेटर से 3 जोत लगा के पाटा लगा देना चाइए जिससे की खेत समतल हो जाये. 

उड़द की फसल के लिए खेत का चुनाव करते समय ध्यान रखें की खेत में पानी निकासी की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए. जिससे की बारिश में या पानी देते समय अगर पानी ज्यादा हो जाये तो उसे निकला जा सके.

मिटटी:

वैसे उड़द की फसल के लिए दोमट और रेतीली जमीन ज्यादा सही रहती हैं लेकिन इसकी फसल को काली मिटटी में भी उगाया जा सकता है. 

हल्की रेतीली, दोमट या मध्यम प्रकार की भूमि जिसमे पानी का निकास अच्छा हो उड़द के लिये अधिक उपयुक्त होती है। पी.एच. मान 6- 8 के बीच वाली भूमि उड़द के लिये उपजाऊ होती है। अम्लीय व क्षारीय भूमि उपयुक्त नही है।

उड़द की उन्नत किस्में या उड़द के प्रकार :

उड़द की निम्नलिखित किस्में हैं जो की ज्यादातर बोई जाती है. टी-9 , पंत यू-19 , पंत यू - 30 , जे वाई पी और यू जी -218 आदि प्रमुख प्रजातियां हैं. 

बीज की दर या उड़द की बीज दर:

बुवाई के लिए उड़द के बीज की सही दर 12-15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है अगर बीज किसी अच्छी संस्था या कंपनी ने तैयार किया है तो. और अगर बीज आपके घर का है या पुराना बीज है तो इसकी थोड़ी मात्रा बढ़ा के बोना चाहिए.

खेत में अगर किसी वजह से नमी कम हो, तो 2-3 किलोग्राम बीज की मात्रा प्रति हेक्टेयर बढ़ाई जा सकती है जिससे की अपने खेत में पौधों की कमी न रहे. जब पौधे थोड़े बड़े हो जाएँ तो ज्यादा पास वाले पौधों को एक निश्चित दूरी के हिसाब से रोपाई कर दें.

बुवाई का समय:

फ़रवरी या मार्च में भी उड़द की फसल को लगाया जाता है तथा इस तरह से इस फसल को बारिश शुरू होने से पहले काट लिया जाता है. 

खरीफ मौसम में उड़द की बुवाई का सही समय जुलाई के पहले हफ्ते से ले कर 15-20 अगस्त तक है. हालांकि अगस्त महीने के अंत तक भी इस की बुवाई की जा सकती है. 

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उड़द में खरपतवार नियंत्रण:

बुवाई के 25 से 30 दिन बाद तक खरपतवार फसल को अत्यधिक नुकसान पहुँचातें हैं यदि खेत में खरपतवार अधिक हैं तो 20-25 दिन बाद एक निराई कर देना चाहिए और अगर खरपतवार नहीं भी है तो भी इसमें समय-समय पर निराई गुड़ाई होती रहनी चाहिए। 

जिन खेतों में खरपतवार गम्भीर समस्या हों वहॉं पर बुवाई से एक दो दिन पश्चात पेन्डीमेथलीन की 0.75 किग्रा0 सक्रिय मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोलकर एक हेक्टेयर में छिड़काव करना सही रहता है। कोशिश करें की खरपतवार को निराई से ही निकलवायें तो ज्यादा सही रहेगा.

तापमान और उसका असर:

उड़द की फसल पर मौसम का ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है. इसको 40 डिग्री तक का तापमान झेलने की क्षमता होती है. इसको कम से कम 20+ तापमान पर बोया जाना चाहिए.

उड़द की खेती से कमाई:

उड़द की खेती से आमदनी तो अच्छी होती ही है और इसके साथ-साथ खेत को भी अच्छा खाद मिलता है. इसकी पत्तियों से हरा खाद खेत को मिलता है.

पोषण और पैसे की गारंटी वाली फसल है मूंग

पोषण और पैसे की गारंटी वाली फसल है मूंग

मूंग खरीफ बोई जाने वाली मुख्य फसल है लेकिन इस मौसम में मोजैक रोग ज्यादा आने के कारण् अब इसकी फसल खरीफ में भी लेना ज्यादा लाभकारी सिद्ध हो रहा है। बेहद कम समय यानी कि 60-70 दिन में इस दलहनी फसल को लेने के दो फायदे हैं। इसकी जड़े खेत में जैविक नाइट्रोजन ​फिक्सेसन का काम करती हैं और नाके बराबर लागत में किसान अपने परिवार के लिए साल भर का पोषक दाल का जुगाड़ कर सकते हैं। मूंग की खेती रबी सीजन के बाद गेहूं काटने के बाद भी ले सकते हैं। फसल मिले तो ठीक नहीं भी मिले तो मूंग की फसल जमीन को खाद के रूप में बेशकीमती पोषक तत्वों का भंडार देने वाली है। तकनीकी ज्ञान के आधार पर अनेक प्रतिकूल परिस्थितियों के बाद भी इसका अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है। रबी सीजन के बाद देश में लाखों हैक्टेयर क्षेत्रफल समूूचे देश में खाली पड़ा रहा जाता है । यदि किसान सामूहिक और सामान्य रूप से भी इसमें मूंग लगाएं तो बेहद लाभकारी परिणाम प्राप्त कर सकते हैं। मूंग की टाइप 44 किस्म अगस्त के दूसरे हफ्ते में बोकर 65 दिन में काटी जा सकती है। इससे अधिकतम 8 कुंतल प्रति हैक्टेयर की उपज मिलती है। पंत मूूंग 1 की बिजाई 25 जुलार्इ् से 10 अगस्त कर करते हैं। 75 दिन में पक कर 10 कुंतल तक उपज मिलती है। यह पीला मोजेक अवरोधी है। पन्त मूंग दो 25 जुलार्इ् से 10 अगस्त कर बोते हैं। यह 70 दिन में 11 कुंतल तक उपज देती है। पंत मूंग 3 की ​बिजाइ्र 25 जुलार्इ् से 10 अगस्त तक करते हैं। अधिकतम 85 दिन में यह 10 से 15 कुंतल तक उत्पादन देती है। राजस्थान के लिए आर एम जी-62 पकाव अवधि 65-70 दिन, उपज 6-9 कुंतल, राइजक्टोनिया ब्लाइट कोण व फली छेदन कीट के प्रति रोधक ,फलियां एक साथ पकती हैं। आरएमजी-268 अवधि 62-70 उपज 8-9 कुंतल, सूखे के प्रति सहनसील,I रोग एवं कीटो का कम प्रकोप,I फलियां एक साथ पकती हैं। I आरएमजी-344 पकाव 62-72 दिन, उपज 7-9 कुंतल, खरीफ एवं जायद दोनों के लिए उपयुक्त,I ब्लाइट को सहने की क्षमता। Iएसएमएल-668, 62-70 दिन, उपज 8-9 कुंतल, दोनों सीजन के लिए उपयुक्त, अनेक बिमारियों एवं रोगो के प्रति सहनसील । गंगा-8, 70—72 दिन, उपज 9-10 कुंतल, उचित समय एवं देरी दोनों स्थतियों में बोने योग्य, दोनों सजीनों के लिए उपयुक्त रोग रोधी। जीएम-4, 62-68 दिन, उपज 10-12 कुंतल, फलियां एक साथ पकती हैं। Iदाने हरे रंग के तथा  बड़े आकर के होते हैं। मूंग के -851, 70-80 दिन, उपज 8-10 कुंतल, सिंचित एवं असिंचित क्षत्रों के लिए उपयुक्त, I चमकदार एवं मोटा दाना होता है। नरेन्द्र मूंग 1, पीडीएम 54, पंत मूग 4, मालवीय ज्योति, मालवीय जनप्रिया, मालवीय जागृति, मालवीय जन चेतना, आशा, मेहा, टीएम 9937, मालवीय जनकल्याणी किस्में अधिकतम 70 दिन में तैयार होकर 15 कुंतल तक उत्पादन देती हैं। पूसा विशाल किस्म समूचे देश में लगार्इ् जा सकती है। उपज 12 कुतल एवं अवधि 70 दिन है। पूसा 672 किस्म 65 दिन में तैयार होकर 12 कुंतल तक उपज देती है। मूंग की खेती के लिए दोमट मिट्टी सबसे अच्छी रहती है। उत्तर भारत में इसकी खेती गर्मी एवं बरसात के सीजन में तथा दक्षित भारत में रबी सीजन में की जाती है। किस्में अनेक हैं। एचयूएम सीरीज की भी मूग की कई किस्में श्रेष्ठ हैं। किसानों को क्षेत्रीय कृषि विज्ञान केन्द्र एवं कृषि विभाग में संपर्क कर आगामी फसल के समय को ध्यान में रखते हुए साल में एक बार अपने खेतों में मूंग की खेती अवश्य करनी चाहिए ताकि जमीन की उपज क्षमता बरकरार रहे।

मूंग की खेती के लिए बीज की बुवाई

  buwai 5 मूंग की बुवाई 15 जुलाई तक करलें। वर्षा देरी से हो तो शीघ्र पकने वाली किस्म की वुबाई 30 जुलाई तक करें। बीज प्रामाणिक लेना चाहिए। कतरों के बीच दूरी 45 से.मी. तथा पौधों से पौधों की दूरी 10 से.मी. उचित है । मूंग की खेती के लिए 12 से 15 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से बीज की जरूरत होती है।

मूंग की फसल में खाद एवं उर्वरक

  urwaruk 1 दलहनी फसलों में उर्वरक की बेहद कम जरूरत होती है। मूंग के लिए 20 किलो नाइट्रोजन तथा 40  किलो फास्फोरस प्रति हैक्टेयर की आवश्कता होती है। इसकी पूर्ति क्रमश 87 किलो ग्राम डी.ए.पी. एवं 10 किलो ग्राम यूरिया से करें। 600 ग्राम राइज़ोबियम कल्चर को एक लीटर पानी में 250 ग्राम गुड़ के साथ गर्म कर ठंडा होने पर बीज को उपचारित कर छाया में सुखा लेना चाहिए तथा बुवाई कर देनी चाहिए। किसी भी दलहनी फसल में अच्छे उत्पादन के लिए कल्चर से बीज उपचार जरूर करें।

मूंग की फसल में खरपतवार नियंत्रण

  moong kharaptar फसल की बुवाई के एक या दो दिन पश्चात एवं अंकुरण से पूर्व पेन्डीमेथलिन (स्टोम्प )की बाजार में उपलब्ध 3.30 लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टयर की दर से छिड़काव करना चाहिए। फसल जब 25 -30 दिन की हो जाये तो ​निराई करें।  इसके बाद भी खरपतवार दिखे तो इमेंजीथाइपर(परसूट) की 750 मिली लीटर मात्रा प्रति हेक्टयर की दर से पानी में घोल बनाकर छिड़काव कर देना चाहिए।
फसलों पर गर्मी नहीं बरपा पाएगी सितम, गेहूं की नई किस्मों से निकाला हल

फसलों पर गर्मी नहीं बरपा पाएगी सितम, गेहूं की नई किस्मों से निकाला हल

फरवरी के महीने में ही बढ़ते तापमान ने किसानों की टेंशन बढ़ा दी है. अब ऐसे में फसलों के बर्बाद होने के अनुमान के बीच एक राहत भरी खबर किसानों के माथे से चिंता की लकीर हटा देगी. बदलते मौसम और बढ़ते तापमान से ना सिर्फ किसान बल्कि सरकार की भी चिंता का ग्राफ ऊपर है. इस साल की भयानक गर्मी की वजह से कहीं पिछले साल की तरह भी गेंहूं की फसल खराब ना हो जाए, इस बात का डर किसानों बुरी तरह से सता रहा है. ऐसे में सरकार को भी यही लग रहा है कि, अगर तापमान की वजह से गेहूं की क्वालिटी में फर्क पड़ा, तो इससे उत्पादन भी प्रभावित हो जाएगा. जिस वजह से आटे की कीमत जहां कम हो वाली थी, उसकी जगह और भी बढ़ जाएगी. जिससे महंगाई का बेलगाम होना भी लाजमी है. आपको बता दें कि, लगातार बढ़ते तापमान पर नजर रखने के लिए केंद्र सरकार ने एक कमेटी का गठन किया था. इन सब के बीच अब सरकार के साथ साथ किसानों को चिंता करने की जरूरत नहीं पड़ेगी. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने वो कर दिखाया है, जो किसी ने भी सोचा भी नहीं था. दरअसल आईसीएआर ने गेहूं की तीन ऐसी किस्म को बनाया है, जो गर्मियों का सीजन आने से पहले ही पककर तैयार हो जाएंगी. यानि के सर्दी का सीजन खत्म होने तक फसल तैयार हो जाएगी. जिसे होली आने से पहले ही काट लिया जाएगा. इतना ही नहीं आईसीएआर के साइंटिस्टो का कहना है कि, गेहूं की ये सभी किस्में विकसित करने का मुख्य कारण बीट-द हीट समाधान के तहत आगे बढ़ाना है.

पांच से छह महीनों में तैयार होती है फसलें

देखा जाए तो आमतौर पर फसलों के तैयार होने में करीब पांच से छह महीने यानि की 140 से 150 दिनों के बीच का समय लगता है. नवंबर के महीने में सबसे ज्यादा गेहूं की बुवाई उत्तर प्रदेश में की जाती है, इसके अलावा नवंबर के महीने के बीच में धान, कपास और सोयाबीन की कटाई मुख्य रूप से पंजाब, हरियाणा, एमपी और राजस्थान में होती है. इन फसलों की कटाई के बाद किसान गेहूं की बुवाई करते हैं. ठीक इसी तरह युपू में दूसरी छमाही और बिहार में धान और गन्ना की फसल की कटाई के बाद ही गेहूं की बुवाई शुरू की जाती है.

महीने के आखिर तक हो सकती है कटाई

साइंटिस्टो के मुताबिक गेहूं की नई तीन किस्मों की बुवाई अगर किसानों ने 20 अक्टूबर से शुरू की तो, गर्मी आने से पहले ही गेहूं की फसल पककर काटने लायक तैयार हो जाएगी. इसका मतलब अगर नई किस्में फसलों को झुलसा देने वाली गर्मी के कांटेक्ट में नहीं आ पाएंगी, जानकारी के मुताबिक मार्च महीने के आखिरी हफ्ते तक इन किस्मों में गेहूं में दाने भरने का काम पूरा कर लिया जाता है. इनकी कटाई की बात करें तो महीने के अंत तक इनकी कटाई आसानी से की जा सकेगी. ये भी पढ़ें: गेहूं पर गर्मी पड़ सकती है भारी, उत्पादन पर पड़ेगा असर

जानिए कितनी मिलती है पैदावार

आईएआरआई के साइंटिस्ट ने ये ख़ास गेहूं की तीन किस्में विकसित की हैं. इन किस्मों में ऐसे सभी जीन शामिल हैं, जो फसल को समय से पहले फूल आने और जल्दी बढ़ने में मदद करेंगे. इसकी पहली किस्म का नाम एचडीसीएसडब्लू-18 रखा गया है. इस किस्म को सबसे पहले साल 2016  में ऑफिशियली तौर पर अधिसूचित किया गया था. एचडी-2967 और एचडी-3086 की किस्म के मुकाबले यह ज्यादा उपज देने में सक्षम है. एचडीसीएसडब्लू-18 की मदद से किसान प्रति हेक्टेयर के हिसाब से सात टन से ज्यादा गेहूं की उपज पा सकते हैं. वहीं पहले से मौजूद एचडी-2967 और एचडी-3086 किस्म से प्रति हेक्टेयर 6 से 6.5 टन तक पैदावार मिलती है.

नई किस्मों को मिला लाइसेंस

सामान्य तौर पर अच्छी उपज वाले गेंहू की किस्मों की ऊंचाई लगभग 90 से 95 सेंटीमीटर होती है. इस वजह से लंबी होने के कारण उनकी बालियों में अच्छे से अनाज भर जाता है. जिस करण उनके झुकने का खतरा बना रहता है. वहीं एचडी-3410 जिसे साल 2022 में जारी किया गया था, उसकी ऊंचाई करीब 100 से 105 सेंटीमीटर होती है. इस किस्म से प्रति हेल्तेय्र के हिसाब से 7.5 टन की उपज मिलती है. लेकिन बात तीसरी किस्म यानि कि एचडी-3385 की हो तो, इस किस्म से काफी ज्यादा उपज मिलने की उम्मीद जताई जा रही है. वहीं एआरआई ने एचडी-3385 जो किसानों और पौधों की किस्मों के पीपीवीएफआरए के संरक्षण के साथ रजिस्ट्रेशन किया है. साथ ही इसने डीसी एम श्रीरा का किस्म का लाइसेंस भी जारी किया है. ये भी पढ़ें: गेहूं की उन्नत किस्में, जानिए बुआई का समय, पैदावार क्षमता एवं अन्य विवरण

कम किये जा सकते हैं आटे के रेट

एक्सपर्ट्स की मानें तो अगर किसानों ने गेहूं की इन नई किस्मों का इस्तेमाल खेती करने में किया तो, गर्मी और लू लगने का डर इन फसलों को नहीं होगा. साथी ही ना तो इसकी गुणवत्ता बिगड़ेगी और ना ही उपज खराब होगी. जिस वजह से गेहूं और आटे दोनों के बढ़ते हुए दामों को कंट्रोल किया जा सकता है.